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रोज़ समीकरण बदलते है

रोज़ समीकरण बदलते है, हम ठीक है सब इसी धोखे में चलते है!
दूसरे की काट के गर्दन, अपनी बचा के निकलते है!

कहते है, मीडिया और पोलिटिक्स में ही गन्दा खेल होता है!
 अरे जाइये साहब,  दुश्मन हर पेशे में पलते है!

कौन  किसका अहसान मानता है आज, जो जिसे बनाता है लोग उसी का दामन  कुचलते है!

याद रखियेगा ये किताब कभी बाज़ार में नहीं आएगी, इसके किरदार आयेदिन बदलते है!
रोज़ समीकरण बदलते है, हम ठीक कर रहे है सब इसी धोखे में चलते है!



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आसान है लिखना

कुछ लोग लिखने को एक आसान काम समझते हैं। है आसान..... मानता हूँ मैं ! मुश्किल नहीं है। आसान तब है जब आपने किसी टूटते हुए तारे को देख लिया। आसान तब है जब आपने कोई तूफ़ान को गुज़रते देख लिया। आसान तब भी हो जाता है जब आप सड़क पर बिखरी भूख़ और गऱीबी देख लेते हैं। तब भी आसान है जब बच्चे अपने बूढ़े माँ-बाप को दर-दर की ठोकरे खाने को सड़क पर छोड़ देते हैं। आसान हो सकता है एक शहीद की जलती चिता देख लिख देना। आसान है किसी गुलबदन का आँचल शब्दों में नाप देना। माँ, प्रकृति, जीवन सबके बारे में आप लिख सकते हैं आसानी से। शायद आप तब भी आसानी से लिख सकते हैं जब पानी में घूमती मछली आपके पैरों में गुदगुदी करती हैं। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको कोई छोड़ जाता है। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको रोना आता है।  पर ये मुश्किल कब है? ये मुश्किल तब है जब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है। जब आपको अपनी गुफ़ा में अंदर घुसना पड़ता है वो भेड़िया ढूंढना पड़ता है जो आपको ढूढ़ रहा है। तब ये बहुत मुश्किल हो जाता है। एक वक़्त के बाद वो रोशनी दिखनी बंद हो जाती है, जिसके सहारे आप चल रहे थे। अब आप कहाँ जाएंगे? आप फँस गए हैं। सही में आप फंस गए हैं। आप उ

मैं भूल जाऊंगा तुम्हें

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वापसी

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