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Showing posts from January, 2017

रफ़्तार

ना जाने बेसबब क्यों याद आ गया। भूल चुका था वो ख़्वाब छा गया ।। ना पलकें मुंदती हैं ना आँखें गीली होती है। हमें भी ख़ुद से समझौता करना आ गया ।। नया ज़माना है, रफ़्तार तेज़ है इसकी। हमें भी इसका साथ निभाना आ गया ।। ना मुकम्मल थे ना होंगे हम। हर चढ़ते दिन, हँसना-हँसाना आ गया ।। घूमती है गरारी दुनियां की अपने पाँव से। मंज़िल पता नहीं पर ठिकाना आ गया ।।

सरक कर बैठो

सरक कर बैठो ज़रा, मयख़ाने में जगह कम है। तुम ही नहीं हमप्याला, ग़म-लबरेज़ दिल कहाँ कम है।। डूबने लगे दिल, तो लगा बैठो आवाज़ साक़ी को। पता लग जाए सबको, यहाँ हम है हम है हम है।। ना रात का इंतज़ार, ना दिन से शर्मो गुरेज़। शै: ऐसी क्या है, जितनी मिले कम है ।। खून में दौड़े क़तरा क़तरा रुमानियत का। शाम होने को है, और बेक़रार हम है।। मिले तो गुलज़ार, ना मिले तो बेज़ार। हालत हमारी पीर-फ़कीर से क्या कम है ।।

मैं हूँ के नहीं

मैं बहुतों के ख्यालों में हूँ।  ताज़ा ख़बर हूँ, सवालों में हूँ।। ऊँगली उठाते है वो बार-बार।  जाने क्यूँ इशारों में हूँ ।। किसी की क्या बिसात ख़ुदा के सामने।  ये क्या कह दिया जो तालों में हूँ।। हुनर है तो मशहूर होना लाज़मी है।  नहीं जानता, फिर क्यूँ ख़ारों में  हूँ।। 

मेरे यार

अब्र से कब्र तक रास्ता रखते है। कुछ लोग इस क़द्र वास्ता रखते है ।। ख़ुद रोते नहीं। हम रो दे, तो हौंसला तैयार रखते है ।। खड़े रहते है साथ, हाथों में हाथ । ऐसे गीले जज़्बात रखते है ।। पुरज़ोर कोशिशें रहीं बिखेरने की हमें। वो हर वार नाक़ाम करने का हथियार रखते है ।। ना डिगे थे, ना डिगेंगे तुमसे। के हम ऐसे यार रखते है ।।

कहानी सीधी है

कहानी सीधी है, ज़ुबानी दौड़ती है। ना दिलबर ना माशूक़, जवानी दौड़ती है ।। बुत ना बन, इस जहां में। ठहरे, तो बदज़ुबानी दौड़ती है।। मय्यस्सर ना होगी धूप, ग़म की छाँव में। ये आग है, पानी की बानी दौड़ती है।। गिरो, उठो, सम्भलो कुछ करो। ऐसे ज़िन्दगी कहाँ रुख़ मोड़ती है।।

वो चली जाएगी

वो तपते सहरा में इठला कर चलती है। दिल हूँक लेता है जब बात निकलती है ।। चुराऊँ नज़रें या बेपर्दा हो जाऊँ। हालत एक सी मचलती है।। आये तो शोर जाए तो शोर। मुट्ठी में हुड़दंग का ज़ोर रखती है ।। दौड़ो वरना चली जाएगी। के वक़्त सी फिसलती है ।।

गहरा सवाल

सर्दी की कुनकुनी धूप हो, या लिहाफ़ हो जज़्बातो का। कोई मौजज़ा हो, मशविरा हो, या ख़्वाब भीगी रातों का। जब चलूँ, तो चल पड़ती है, तुम्हारी परछाई संग। जैसे हिसाब हो जाने, पिछली कितनी बातों का। ना तुम्हे ख़त में समेट पाया, ना किताबों में। गहरा सवाल थी तुम, मेरी जागती आँखों का। ना बता पाये तो हँस दिये, कह के पागल। बहुतों से पूछा ईलाज, ज़ख़्मे-सौगातों का। क्या से क्या हो जाता है इंसान, पूछो उससे । जिसका चैन खो जाता है, दिन का रातों का।

बेख़बर

कब कहा था तुमने, मुझे क्या करना है? रुकना है, चलना है, गिरना है, सम्भलना है।। मशगूल हुए तुम, हो हमसे बेख़बर। कहाँ याद हो, किस-किस से मिलना है।। तुम्हें मुस्कुराता देखने की कोशिश में। आँसूं भूल गए, कब-कब निकलना है।। तोहमत कहते है, हमारे इश्क़ को अब। वक़्त था, जब इसे मिसाल लेके चलना है।।

सुक़ून

नहीं है, के मेरे मन में वो सुक़ून नहीं है। बेख़बर मौज नहीं है, वो कहकहे नहीं है।। वो बेपरवाही नहीं है, वो आवारगी नहीं है। जो थी इक ख़ुमारी, वो ख़ुमारी कहीं नहीं है।। समझ की चादर ओढ़ी हुई है, नासमझ यारी नहीं है। जो मज़ा था अल्हड़पन का, वो कारगुज़ारी नहीं है ।। धूप भरा आसमाँ, ज़िम्मेवारी की छत ने कबआ घेरा। जिससे अपना ग़म कह लूँ, वो रायशुमारी नहीं है ।।