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Showing posts from June, 2019

Review Kabir Singh

ओके! तो आप कबीर सिंह देखने जा रहे हैं, मेरी शुभकामनायें। वैसे तो इतना लिखा और बोला जा चुका है कि और क्या लिखे इसकी गुंजाईश कम ही बची है, फिर भी कीड़ा है न लिखने का तो रेंगेगा तो सही। * अगर आप खाते- पीते घर से है तो आप हर 10 मिनट में ऊपर वाले से कबीर सिंह जैसे गुर्दे देने की विनती करेंगे। * हमें ये तो अभिभूत करता है जब कोई अमीर लड़का बिगड़ैल और बेवड़ा बनकर नीचे उतर आता है पर यही कबीर सिंह यदि झोपड़पट्टी से आता तो हम उसे सिरे से नकार देते। फिल्म के आखिरी 50 मिनट देव-डी के अभय देओल की याद भी दिला जाते हैं। * प्रीती के आधी फिल्म में चुप रहने से आप खीझ जायेंगे। * शायद कहीं न कहीं देव-डी और कबीर सिंह के बैक ऑफ़ दा माइंड ये स्ट्रांग फीलिंग थी, 'तेरे को पता है न मेरा बाप कौन है।' मतलब हालात कुछ भी हो जाये पीछे एक financial सपोर्ट सिस्टम तो है ही और जब दोस्त शिवा जैसे हो तो फिर हर हालत में पियेंगे। * शाहिद ने कहीं-कहीं बहुत अच्छा और वैसे जैसा अभिनय वो करते हैं वैसा ही किया है। * जिन्होंने अपने कॉलेज के समय को शिद्दत से जिया है उन्हें ये फ़िल्म बेहद नोस्टालजिक कर देगी और कुछ लोग अ

कोमल

"तुम जैसे कंजर यार मिल जाये तो दुश्मनों की क्या ज़रूरत है। पता है अभी तक मेरे रौंगटे खड़े हैं। आगे से पार्टीज़ में कोई भूतिया कहानी नहीं सुनायेगा, कहे देती हूँ।" कोमल ने अपने दोस्तों पर तड़ी झाड़ते हुए ग़ुस्सा किया। "हाँ-हाँ भई नहीं सुनायेंगे अब तुम्हें भी नाराज़ कर दिया तो फिर इस जगह से भी महरूम हो जायेंगे। एक पूरे शहर में तू ही तो है जो फ्लैट में अकेली रहती है।" निष्ठा आँख नचाते हुए बोली। "पर यार कुछ भी कहो, वो जो आख़िरी वाक्या मनु ने सुनाया न, बाय गॉड बड़ा डरावना था। ज़रा सोचो एक अकेली बिल्डिंग शहर से कटकर जंगल के पास और उसके अंदर पाँचवे माले के 13 नंबर अपार्टमेंट में भटकती, वो टेड़े सर की भूतनी। बाप रे! मुझे तो आज रात नींद नहीं आने वाली। निष्ठा आज तू मेरे यहाँ चल के सो।" अपराजिता ने निष्ठा से तकाज़ा किया। "अरे यार! घर नहीं चलना क्या? इतना टाइम हो गया। लो फ़ोन भी आ गया मम्मी का। हाँ, हेलो! जी मम्मी, कोमल के यहाँ से बस निकल ही रहे थे। मैं हूँ, निष्ठा है, अपराजिता और मनु हैं। हाँ! पंद्रह मिनट में पहुँच जाऊँगी। जूही बोली। "यार तुम लोग अभी और नहीं

अपना ख़ून

"सीसीटीवी कैमरा में देखने से ये तो नहीं पता चल रहा कि क़त्ल किसने किया पर भरोसा रखिये। हम क़ातिल को जल्द ढूंढ निकालेंगे।" कुछ ऐसे ही फ़िल्मी जुमले दे कर पुलिस चली गयी। पीछे छोड़ गयी रोती हुई मिसेस भाटिया और उनकी बेटी पम्मी। कल तक हंसने-खेलने वाले सबसे मीठा बोलने वाले भाटिया साहब आज खामोश थे। "चलो मम्मी उठो आप वहाँ पलँग पर बैठ जाओ। ज़मीन ठंडी है।" "नहीं पम्मी मुझे इनके पास ही रहने दे। कल भी यही कह रहे थे संतोष तू न मेरे पास रहा कर। तू साथ रहती है तो सब अच्छा लगता है। पर किसे पता था के फिर खुद ही छोड़..... ।" कहते-कहते संतोष रोने लगी। इतने में फ़ोन की घंटी बजी और पम्मी फ़ोन उठाने दूसरे कमरे में चली गयी। "हह.. हैलो कौन।" "जानेमन मैं, काम हो गया न? बोला था न तुमको मैं सब संभाल लूँगा अब बस तुम बुड्ढी के सिग्नेचर ले लो कागज़ात पर फिर सब कुछ अपना।" "हम्म! पर उन्हें जान से मारने की क्या ज़रूरत थी?" "तो कैसे होता सब, क्या वो कभी अपनी जायदाद तुम्हें सौपने के लिए बुड्ढी को बोलते की कागज़ात पर सिग्नेचर कर दो। एक पल को तो छोड़ते नहीं

सुमि (लघुकथा)

कई रात लगातार जागने से उसकी आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गये थे। आज फैंसले की सुबह थी। दीवार से सिर टिकाये पलंग पर बैठी-बैठी वो पूरी रात मोबाइल को उठाती और नीचे रखती रही थी। रविश टूर पर था अक्सर अपने काम से बाहर ही रहता था। उसके पीछे रह जाती थी अकेली सुमि इस नये और अनजान शहर में। वैसे इन दिनों सुमि के अंदर से कोई दूसरी ही सुमि बाहर निकल आयी थी, और कहीं दूर तक चली गयी थी। वहाँ से आगे जाना है या लौटना है, यही कशमकश उसे जगाये रखती थी। इसके पीछे वजह थी वो मुलाक़ात जो उसके एप्पल फ़ोन के ख़राब हो जाने से हुई थी। राज से वो एप्पल स्टोर के कस्टमर केयर पर मिली थी। वो एक छोटी मुलाक़ात थी। जहाँ वो एक कस्टमर थी और राज एक सर्विस इंजीनियर। कोई पार्ट मिसिंग था उस दिन, इसलिए काम पूरा नहीं हुआ। सुमि को बाद में आने को कहकर राज ने सुमि का नंबर मांग लिया था। उस दिन से ही दोनों के मोबाइल नंबर्स आपस में जुड़ गए थे। वो जुड़ाव नंबर्स से कब दिल पर घंटी देने लगा, पता ही नहीं चला। सुमि राज के साथ बहती चली गयी। फ़ोन पर बातें बढ़ कर मुलाक़ातों तक पहुंची और फिर एक दिन जिस्मानियाँ दूरियाँ मिटने के बाद जैसे सुमि नींद