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कुछ अजीब प्यार है अपना

कुछ अजीब प्यार है अपना। जब सामना होता है तो नज़रें चुराना होता है। और जब दूरी बढ़ती है, तो तुम्हारे ही पास आना होता है।  कुछ अजीब प्यार है अपना। ज़ख़्म भी दिखाना होता है और दर्द भी छुपाना होता है। और जब दर्द बढ़ता है, तो वो तुम तक आने का बहाना होता है।  कुछ अजीब प्यार है अपना। ये दिल तुम पर ही आता है और तुम्हें ही सताता है। और जब ख़ुद बेकल हो जाता है, तो तुममें ही पनाह पाता है।  कुछ अजीब प्यार है अपना। जो तुम्हारे आते ही ऑटो के मीटर सा डाउन हो जाता है। तुम जल्द चले जाओगे, बस यही सोचता चला जाता है।  कुछ अजीब प्यार है अपना। जो तुम्हें रुई सा छू जाता है और चट्टान से टकरा जाता है। तुम्हारी आँखों में आँसू, कभी देख नहीं पाता है।  कुछ अजीब प्यार है अपना। मुझे इतना स्वाभाविक लगता है कि इसके बिना अजीब लगता है। तुम मेरे हो बस मेरे, अब यही अपना पता लगता है। 
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रोटी खाना मना है

नट का खेल दिखाता बच्चा अचानक बीच रस्ते रस्सी पर रुक गया है। उसके रुकने से ढोल की थाप लय से भटक रही है। लोगों की आँखें बच्चे पर है, बच्चे की आंख में मदारी के लिए सवाल है, 'आख़िर मेरा कुसूर क्या है? तेरी भूख के लिए मैं क्यों नाचूं?'  घूरती आँखों से किये सवाल के जवाब में पहले आती है माँ-बहन की गाली और फिर भी न हिलने पर एक तमाचा! रस्सी फिर तन जाती है, फटी ऐड़ियों से भरे पांव फिर से संतुलन साधते हैं। ढोल बजाने वाली बहन भी छोटे भाई के विद्रोह में शामिल है, उसके ताल देने में गुस्सा है। कुछ ऐसा सीन बन पड़ा है, जैसे बेड़ियों में जकड़े दिलीप कुमार और  मनोज कुमार गा रहे हो "मेरा चना है अपनी मर्ज़ी का!" सब समझ रहा है रिंग मास्टर बना मदारी पर वो धंधे की शर्त से बंधा हुआ है, 'शो मस्ट गो ऑन!' सबकी खुमारी उतारेगा वह रात को अपने चाबुक से। पहले पैसे बटोरते हुई-अपनी इस निकम्मी औरत की-जो उम्मीद से है, एक और नाउम्मीद नट पैदा करने की। इसने अपनी औलादों को नट तो बना दिया पर तमाशे की तमीज़ नहीं सिखाई। अरे! तमाशबीन भीड़ को चाहिए मनोरंजन सिर्फ़ मनोरंजन, फिर बारी आयेगी ढोलची बनी इस तेरह साला

मैं भूल जाऊंगा तुम्हें

जब मैं अपनी सबसे सुन्दर कविता लिख रहा होऊँगा, तब मैं भूल जाऊंगा तुम्हें।  मैं भूल जाऊँगा तुम्हारे अधर, लहराते बाल, भँवर पड़ते गाल, बिंदी और कुमकुम को।  मैं भूल जाऊँगा तुम्हारी यादों को, सहज मीठी बातों को, गहरी रातों को, महकती साँसों को।  यकीन मानों मैं भूल जाऊंगा, भूल जाऊंगा उन वादों को, हसीं इरादों को।  मैं याद रखूँगा वो एक कड़वी बात जो तुमने कही थी, जाने-अनजाने में, किसी फ़साने में।   न मुझे सताने को, न भरमाने को, बस कह दी थी, आवेग और शायद आवेश में।  और मैं याद रखूँगा, ये नदी, पहाड़, प्रकृति, पेड़ पर बैठी चिड़िया, तारे और डूबता सूरज।।

आसान है लिखना

कुछ लोग लिखने को एक आसान काम समझते हैं। है आसान..... मानता हूँ मैं ! मुश्किल नहीं है। आसान तब है जब आपने किसी टूटते हुए तारे को देख लिया। आसान तब है जब आपने कोई तूफ़ान को गुज़रते देख लिया। आसान तब भी हो जाता है जब आप सड़क पर बिखरी भूख़ और गऱीबी देख लेते हैं। तब भी आसान है जब बच्चे अपने बूढ़े माँ-बाप को दर-दर की ठोकरे खाने को सड़क पर छोड़ देते हैं। आसान हो सकता है एक शहीद की जलती चिता देख लिख देना। आसान है किसी गुलबदन का आँचल शब्दों में नाप देना। माँ, प्रकृति, जीवन सबके बारे में आप लिख सकते हैं आसानी से। शायद आप तब भी आसानी से लिख सकते हैं जब पानी में घूमती मछली आपके पैरों में गुदगुदी करती हैं। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको कोई छोड़ जाता है। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको रोना आता है।  पर ये मुश्किल कब है? ये मुश्किल तब है जब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है। जब आपको अपनी गुफ़ा में अंदर घुसना पड़ता है वो भेड़िया ढूंढना पड़ता है जो आपको ढूढ़ रहा है। तब ये बहुत मुश्किल हो जाता है। एक वक़्त के बाद वो रोशनी दिखनी बंद हो जाती है, जिसके सहारे आप चल रहे थे। अब आप कहाँ जाएंगे? आप फँस गए हैं। सही में आप फंस गए हैं। आप उ

मैं

खोने को कौन मेरे सिवा, पाने को कौन मेरे सिवा।  भूला भी मैं, जो भूला सा कुछ याद आया वो भी मैं।। उड़ता परिंदा भी मैं, दहाड़ता जंगल भी मैं।  जो तू कहे मैं, तो मैं भी मैं, तू भी मैं।। जो कमाया वो भी मैं, जो गवायाँ वो भी मैं।  जो दिखाया वो भी मैं, जो छिपाया वो भी मैं।। ज़ख्म भी मैं, तीर भी मैं।  जो बहा लहू वो भी मैं, जो लड़ कर गिरा वो भी मैं।। पानी की परछाई भी मैं, सूरज की आश्नाई भी मैं। मुझ को मुझ से जुदा करेगा कौन, वो भी मैं।।  

वापसी

" परी को   कुछ पता नहीं चलना चाहिये।" " यह कैसे सम्भव है ?" " मुझे नहीं पता पर यही करना होगा।" कहते हुए रेणु ने आंसुओं को छिपाने के लिये मुँह मोड़ लिया। दीपक ने भी उमड़ते हुए जज़्बात ज़ब्त कर लिए। इस रविवार को   उन दोनों को बहुत हिम्मत दिखानी है , बहुत हिम्मत। इतनी ज़्यादा जैसे कुछ हुआ ही न हो और यह रात भी ऐसी बीतेगी जैसी सब रातें बीतती आयी हैं। " अब तुम जाओ" रेणु की सुन दीपक चुपचाप ऑफिस को चल पड़ा। उसका एक-एक क़दम ऐसे भारी हो रखा था, जैसे आत्मा पर बोझ पड़ा हो।     सिर्फ़ तीन महीने में ही अच्छी ख़ासी ज़िन्दगी-क्या से क्या हो गयी। हँसते-खेलते परिवार को जाने किसकी नज़र लग गयी। दीपक के बुरे दिन शुरू हुए तो फिर रुके ही नहीं। कोई छः महीने पहले तक उसका टूर एंड ट्रेवल के क्षेत्र में बड़ा नाम था। उसकी एजेंसी अपने शहर की नामी ट्रेवलिंग एजेंसी में शुमार थी। सब अच्छा ही चल रहा था पर हमेशा तो समय एक सा नहीं रहता। दीपक ने ख़ासे चलते व्यापार में एक जोख़िम उठा लिया। उसने सोना ट्रेवल कंपनी, जो कुछ सालों से घाटे में थी, उसे खरीदने की मंशा पाल ली। दीपक को उसके सी.ए.

lekahak biodata

  आत्मवृत्त नाम -  लोकेश गुलयानी  जन्मतिथि - 23.08.1978  स्थायी पता - ए-180, जे.डी.ए. स्टाफ कॉलोनी, टीलावाला, हल्दीघाटी मार्ग, जयपुर - 302017  वर्तमान पता - ई 2 / 336 अरेरा कॉलोनी, भोपाल - 462016  मोबाइल - 98280 66335  ईमेल - lokesh.gulyani@yahoo.in  शैक्षणिक योग्यता: समाजशास्त्र से स्नातकोत्तर, 2001, राजस्थान विश्वविद्यालय जनसंचार एवं पत्रकारिता से स्नातकोत्तर, 2004, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय पी.जी. डिप्लोमा एडवरटाइजिंग एवं जन संचार, 2003, राजस्थान विश्वविद्यालय   कार्यानुभव: लगभग 21 वर्षों से देश के कई टीवी एवं रेडियो चैनल्स हेतु प्रोग्रामिंग के विभिन्न पदों पर कार्य किया। वर्तमान में भोपाल में एक सरकारी परियोजना हेतु जनसम्पर्क सलाहकार के पद पर कार्यरत।  प्रकाशित पुस्तकें: १) जे  - कश्यप प्रकाशन - 2015, (हिंदी उपन्यास) २) बोध - हिन्द युग्म  - 2018, (हिंदी उपन्यास)   ३) ज़हनी अय्याशी - कश्यप प्रकाशन - 2018 (कविता संग्रह) ४) वो कहानी यही है - सन्मति प्रकाशन - 2019 (कहानी संग्रह) ५) यू ब्लडी शिट पंजाबी - हिन्द युग्म - 2020 (कहानी संग्रह