रेल की पटरियों के बीच पड़ा, सुबह के कोई 4 बजे वो सोच रहा जैसे पूरी ज़िन्दगी का निचोड़! जेब खाली, चेहरे पर छाई बदहाली, किसी के लिए भी मुमकिन था, सोच लेना की ये ख़ुदकुशी है!! पर वो शांत था, ठीक वैसे ही जैसा हमने साधुओं को देखा है! हालत उसकी सिफर और मुक्कम्मल दोनों थी, बस नज़र का फेर था!! वो मुस्कुराया शायद जैसे उसे कुछ याद आया, हाथों में हरकत हुई और होठ बुदबुदाये! ओह! अब थोड़ी आवाज़ भी आ रही है, शायद उसकी जीभ फिजा में गाना घुला रही है!! अरे ये तो मगन हो गया, इतना की दूर से आता शोर करता इंजन इसे सुनाई ही नहीं दे रहा! इंजन पास आ रहा है, ये बेवकूफ अपनी मौत को दावत देता हुआ और जोर से गा रहा है!! मैंने देखा है बचपन में पटरियों पर रखे सिक्का को, जब गाड़ी पास आती है पटरियां थर्राती है! वक़्त है, चाहे तो लौट जा, क्यूँ ख़बर बनना चाहता है किसी नाकाम से अखबार की!! गाना तेज़ होता जा रहा है, इंजन को क्या फर्क पड़ता है सामने पटरी हो, सिक्का हो या सर! अरे क्यूँ पटरियों को कस के जकड़ रहा है, खुद पे भरोसा नहीं है क्या मरने का!! इंजन की सीटी मे