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Review Kabir Singh


ओके! तो आप कबीर सिंह देखने जा रहे हैं, मेरी शुभकामनायें। वैसे तो इतना लिखा और बोला जा चुका है कि और क्या लिखे इसकी गुंजाईश कम ही बची है, फिर भी कीड़ा है न लिखने का तो रेंगेगा तो सही।

* अगर आप खाते-पीते घर से है तो आप हर 10 मिनट में ऊपर वाले से कबीर सिंह जैसे गुर्दे देने की विनती करेंगे।

* हमें ये तो अभिभूत करता है जब कोई अमीर लड़का बिगड़ैल और बेवड़ा बनकर नीचे उतर आता है पर यही कबीर सिंह यदि झोपड़पट्टी से आता तो हम उसे सिरे से नकार देते। फिल्म के आखिरी 50 मिनट देव-डी के अभय देओल की याद भी दिला जाते हैं।

* प्रीती के आधी फिल्म में चुप रहने से आप खीझ जायेंगे।

* शायद कहीं न कहीं देव-डी और कबीर सिंह के बैक ऑफ़ दा माइंड ये स्ट्रांग फीलिंग थी, 'तेरे को पता है न मेरा बाप कौन है।' मतलब हालात कुछ भी हो जाये पीछे एक financial सपोर्ट सिस्टम तो है ही और जब दोस्त शिवा जैसे हो तो फिर हर हालत में पियेंगे।

* शाहिद ने कहीं-कहीं बहुत अच्छा और वैसे जैसा अभिनय वो करते हैं वैसा ही किया है।

* जिन्होंने अपने कॉलेज के समय को शिद्दत से जिया है उन्हें ये फ़िल्म बेहद नोस्टालजिक कर देगी और कुछ लोग अपनी पुरानी प्रीत को अभी तक pretty दिखती होगी सोच कर फ़ोन घुमाने की गलती कर बैठेंगे।

* फिल्म कुल-मिला कर कोई सन्देश तो देती नहीं दिखती सिवाय इसके की बॉस मसल्स (जिगरा) है तो सब कुछ है।

* गालियाँ दी ही थी और फिल्म को A सर्टिफिकेट दे ही दिया था तो दबाने की वजह समझ नहीं आती।

* फिल्म का सेकंड हाफ बेहतर है, फ़िल्म हेरोईन ज़िआ कब आयी कब गयी पता कम ही लगता है।

* इस फिल्म में कबीर के अलावा अगर किसी ने थोड़ा भी ध्यान खींचा है तो वो है कबीर का दोस्त शिवा।


अर्जुन रेड्डी मेरी देखी हुई नहीं थी सो ये तो नहीं कह सकता की कबीर सिंह ज़्यादा बेहतर है या अर्जुन रेड्डी। इसलिए कहानी के लिए मैं कुछ नहीं कहूँगा। कहीं-कहीं फिल्म कसावट छोड़ देती है। संगीत वैसे सुनने में कर्णप्रिय है पर फिल्म में जगह-जगह मोंटाज बना कर ठूंसा गया लगता है। आप कबीर सिंह से दिन में 16  घंटे  काम करना 04 घंटे सोना और 04 घंटे पीना सीख सकते हैं। प्रीती सिक्का से चुप रहना सीख सकते हैं। शिवा से दोस्ती हर हाल में निभायी जाए ये सीख सकते हैं। और ये फिल्म आपको बजट से बाहर जाकर पीना और आधी आबादी को कुछ हद तक ग़ोश्त की नज़रों से देखने का नज़रिया भी देती है।

* फ़िल्म हॉल से निकल कर घर तक 'कैसे हुआ' और 'तू पहला-पहला प्यार' को गुनगुनाते हुए घर लौटने के लिए देखी जा सकती है।



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होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं बना रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत अच्छा होने नहीं देती   

आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

हुनर

वह नगीनों की घिसाई का काम करता था। उसकी पारखी आँखें कम रोशनी में भी खोट पहचान लेती थी और उसी परख की बदौलत घर का चूल्हा रंग बदलता था। चुनिंदा रंग देखे थे उन आँखों ने पर नीलम का मोरिया रंग उसे बहुत भाता था। जिस दिन मालिक उसे नीलम पकड़ा देता, मानो उसे खुद की सुध-बुध न रहती। उसकी हालत दारु के ठेके के बाहर बैठे दारुड़ियों सी हो जाती। वह उसे उठा-उठा के देखता, अपनी आँखों के सामंने नचाता, उसे काटते हुए उसका कलेजा रह-रह कर मुँह को आता। बालों में सफेदी आयी और आँखों में धुंधलापन। अब सिवाय डबडबायें रंगों के और कुछ न दिखता। बैठक अब किसी सेठ की गद्दी पर न होकर घर के बाहर के नीम के नीचे पड़ी खाट पर होती। गली के बच्चे खेल-खेल में उसे कंचे और पत्थर थमा देते और उसके कानों में कटिंग मशीन की गरारियों का शोर गूँज उठता और हाथ ख़ुद ब ख़ुद पत्थर को आँखों के सामने हिलाने-ढुलाने लगते। पत्थरों का क्या है...किसी भी रंग के सही।