सरकता सिसकता दर्द और मैँ ये दूर खड़ा, ओंधे पड़ें घड़े सा मजबूर बड़ा   चींटियाँ सी रेंगती हैं नस-नस में, खून का हर कतरा  पानी को तरस पड़ा..!       गर्म हवाएँ भेद  जाती है जिस्म के कबाड़ को, टटोलने से मिलता है वजूद मेरा   आसमां तक नज़र जाकर लौट आती है, के उपर से नीचे तक  सन्नाटा है  पसरा पङा ..!       जल रहा है हलक मेरा धूप पी-पी के,  दिमाग से कुछ सूझते न बन पड़ रहा   क्या सही है क्या ग़लत ये अभी फ़िज़ूल है, ज़िंदा जीव को रखने का बखेड़ा  खड़ा.. !       सीख के तो सब ख़ाना आते है यहाँ,  भूख़  खुद  सिखाती है सबक बहुत बड़ा   हालत हो गयी है ऐसी कि जो दिख जाये काट दू, पर शमशान भी सुनसान मरा..!       मंडराते है गिद्ध मेरी जीतीं हुई  लाश पे, की आज नहि तो कल का उन्हे आसरा बड़ा    कैसा हठ है मेरा खुद से ज़ीने का, के मरना चाहेँ है दर्द, पर मैं ज़िद्द पे अडा.. !      
Fitoor....jo kagaz pe utar aata hai...