नहीं है, के मेरे मन में वो सुक़ून नहीं है।
बेख़बर मौज नहीं है, वो कहकहे नहीं है।।
वो बेपरवाही नहीं है, वो आवारगी नहीं है।
जो थी इक ख़ुमारी, वो ख़ुमारी कहीं नहीं है।।
समझ की चादर ओढ़ी हुई है, नासमझ यारी नहीं है।
जो मज़ा था अल्हड़पन का, वो कारगुज़ारी नहीं है ।।
धूप भरा आसमाँ, ज़िम्मेवारी की छत ने कबआ घेरा।
जिससे अपना ग़म कह लूँ, वो रायशुमारी नहीं है ।।
बेख़बर मौज नहीं है, वो कहकहे नहीं है।।
वो बेपरवाही नहीं है, वो आवारगी नहीं है।
जो थी इक ख़ुमारी, वो ख़ुमारी कहीं नहीं है।।
समझ की चादर ओढ़ी हुई है, नासमझ यारी नहीं है।
जो मज़ा था अल्हड़पन का, वो कारगुज़ारी नहीं है ।।
धूप भरा आसमाँ, ज़िम्मेवारी की छत ने कबआ घेरा।
जिससे अपना ग़म कह लूँ, वो रायशुमारी नहीं है ।।
Nice dear
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