सर्दी की कुनकुनी धूप हो, या लिहाफ़ हो जज़्बातो का।
कोई मौजज़ा हो, मशविरा हो, या ख़्वाब भीगी रातों का।
जब चलूँ, तो चल पड़ती है, तुम्हारी परछाई संग।
जैसे हिसाब हो जाने, पिछली कितनी बातों का।
ना तुम्हे ख़त में समेट पाया, ना किताबों में।
गहरा सवाल थी तुम, मेरी जागती आँखों का।
ना बता पाये तो हँस दिये, कह के पागल।
बहुतों से पूछा ईलाज, ज़ख़्मे-सौगातों का।
क्या से क्या हो जाता है इंसान, पूछो उससे ।
जिसका चैन खो जाता है, दिन का रातों का।
कोई मौजज़ा हो, मशविरा हो, या ख़्वाब भीगी रातों का।
जब चलूँ, तो चल पड़ती है, तुम्हारी परछाई संग।
जैसे हिसाब हो जाने, पिछली कितनी बातों का।
ना तुम्हे ख़त में समेट पाया, ना किताबों में।
गहरा सवाल थी तुम, मेरी जागती आँखों का।
ना बता पाये तो हँस दिये, कह के पागल।
बहुतों से पूछा ईलाज, ज़ख़्मे-सौगातों का।
क्या से क्या हो जाता है इंसान, पूछो उससे ।
जिसका चैन खो जाता है, दिन का रातों का।
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