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गहरा सवाल

सर्दी की कुनकुनी धूप हो, या लिहाफ़ हो जज़्बातो का।
कोई मौजज़ा हो, मशविरा हो, या ख़्वाब भीगी रातों का।

जब चलूँ, तो चल पड़ती है, तुम्हारी परछाई संग।
जैसे हिसाब हो जाने, पिछली कितनी बातों का।

ना तुम्हे ख़त में समेट पाया, ना किताबों में।
गहरा सवाल थी तुम, मेरी जागती आँखों का।

ना बता पाये तो हँस दिये, कह के पागल।
बहुतों से पूछा ईलाज, ज़ख़्मे-सौगातों का।

क्या से क्या हो जाता है इंसान, पूछो उससे ।
जिसका चैन खो जाता है, दिन का रातों का।

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आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

हुआ सो हुआ

अंधेरा होना था, हुआ सो हुआ  सपना सलोना था, हुआ सो हुआ  आइना न तोड़िये, चेहरे को देखकर  दिल को रोना था, हुआ सो हुआ  कौन पूछेगा हाल, अब तेरे बाद  तुझको ही खोना था, हुआ सो हुआ  मरासिम न रहे, तो न सही  सलाम होना था, हुआ सो हुआ 

होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत हमें अच्छा होने नहीं देती