चाँद आज बहुत ठंडा है, पता नहीं क्यूँ!
रोज़ तो पिघल उठता है, आँखों की गर्मी से!
कैसा ये परिंदा है, चहकता नहीं जो!!
मेरे दिल की गहराई, अपनी हदें तोड़ती हैं, रूकती नहीं क्यूँ!
मन मेरा बेकल हो उठता है, बेचैनी से!
कहने को तड़पता है, कहा नहीं जो!!
कभी चव्वनी कभी अठन्नी सी सूरत तेरी, लगती है क्यूँ!
लगता तुझे भी चाहिए प्यार, किसी से!
ये मौका परस्तो की बस्ती है, छूट पीछे जाता है, समझा नहीं जो!!
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