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रोटी खाना मना है

नट का खेल दिखाता बच्चा अचानक बीच रस्ते रस्सी पर रुक गया है। उसके रुकने से ढोल की थाप लय से भटक रही है। लोगों की आँखें बच्चे पर है, बच्चे की आंख में मदारी के लिए सवाल है, 'आख़िर मेरा कुसूर क्या है? तेरी भूख के लिए मैं क्यों नाचूं?' 


घूरती आँखों से किये सवाल के जवाब में पहले आती है माँ-बहन की गाली और फिर भी न हिलने पर एक तमाचा! रस्सी फिर तन जाती है, फटी ऐड़ियों से भरे पांव फिर से संतुलन साधते हैं। ढोल बजाने वाली बहन भी छोटे भाई के विद्रोह में शामिल है, उसके ताल देने में गुस्सा है। कुछ ऐसा सीन बन पड़ा है, जैसे बेड़ियों में जकड़े दिलीप कुमार और  मनोज कुमार गा रहे हो "मेरा चना है अपनी मर्ज़ी का!" सब समझ रहा है रिंग मास्टर बना मदारी पर वो धंधे की शर्त से बंधा हुआ है, 'शो मस्ट गो ऑन!'


सबकी खुमारी उतारेगा वह रात को अपने चाबुक से। पहले पैसे बटोरते हुई-अपनी इस निकम्मी औरत की-जो उम्मीद से है, एक और नाउम्मीद नट पैदा करने की। इसने अपनी औलादों को नट तो बना दिया पर तमाशे की तमीज़ नहीं सिखाई। अरे! तमाशबीन भीड़ को चाहिए मनोरंजन सिर्फ़ मनोरंजन, फिर बारी आयेगी ढोलची बनी इस तेरह साला छोकरी की, और रात ख़त्म होगी-इस कांगड़ी पहलवान नट पर-जो जनता के मनोरंजन का हक़ लूटना चाहता है। 


खेल चलते रहना चाहिए, यही एकमात्र नियम है खेल का, ये खेल भूखे पेट का है, भूखी आंखों का है, छोटे अंगिया-चोली का है, ये खेल आँखों से आँखें मिला कर मांगने का है, कुछ मिल जाने पर आपस में छीनने का है। जब ये खेल खत्म होता है तब असली खेल शुरू होता है। उस खेल को खेलने में जोख़िम है, उसमें कोई कलाबाज़ी नहीं है, बस कोड़ा है और खाल है। भरा पेट कोड़ा नहीं सह सकता...इसलिए रोटी खाना मना है!

@Lokesh Gulyani

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होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं बना रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत अच्छा होने नहीं देती   

आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

अब तलक वो - ग़ज़ल

अब तलक वो हमें याद करते हैं, थोड़ा-थोड़ा बर्बाद करते हैं।। काफ़िला तो गुज़र गया यारों, मुसाफ़िरों को याद करते हैं।। मंज़रे सहरा तब उभर आया, जब वो बारिश की बात करते हैं।। इंसा-इंसा को भी क्या देगा, क्यों हम उनसे फ़रियाद करते हैं।।  ज़िल्लतें जिनकी ख़ातिर पी हमने, वही हमसे किनारा करते हैं।। थका-हारा दिल आख़िर टूट गया, क्यों अब उससे कोई आस रखते हैं।।