"परी को कुछ पता नहीं चलना
चाहिये।"
"यह कैसे
सम्भव है?"
"मुझे नहीं
पता पर यही करना होगा।" कहते हुए रेणु ने आंसुओं को
छिपाने के लिये मुँह मोड़ लिया। दीपक ने भी उमड़ते हुए जज़्बात ज़ब्त कर लिए। इस
रविवार को उन दोनों को बहुत हिम्मत दिखानी
है, बहुत हिम्मत। इतनी ज़्यादा जैसे
कुछ हुआ ही न हो और यह रात भी ऐसी बीतेगी जैसी सब रातें बीतती आयी हैं।
"अब तुम जाओ" रेणु की सुन दीपक चुपचाप ऑफिस को चल पड़ा। उसका एक-एक क़दम ऐसे भारी हो रखा था, जैसे आत्मा पर बोझ पड़ा
हो।
सिर्फ़ तीन महीने
में ही अच्छी ख़ासी ज़िन्दगी-क्या से क्या हो गयी। हँसते-खेलते परिवार को जाने
किसकी नज़र लग गयी। दीपक के बुरे दिन शुरू हुए तो फिर रुके ही नहीं। कोई छः
महीने पहले तक उसका टूर एंड ट्रेवल के क्षेत्र में बड़ा नाम था। उसकी एजेंसी अपने शहर की
नामी ट्रेवलिंग एजेंसी में शुमार थी। सब अच्छा ही चल रहा था पर हमेशा तो समय एक सा
नहीं रहता। दीपक ने ख़ासे चलते व्यापार में एक जोख़िम उठा लिया। उसने सोना
ट्रेवल कंपनी, जो कुछ सालों से घाटे में थी, उसे खरीदने की मंशा पाल ली।
दीपक को उसके सी.ए. ने बहुत मना किया पर जैसे उसके ही सिर पर भूत सवार था।
आख़िरकार वह अपने मन की करके ही माना।
अधिग्रहण के
बाद दस-पंद्रह दिन तो अच्छे बीते। उसने सोना ट्रेवलिंग एजेंसी के कर्मचारियों की
तनख्वाह भी बढ़ा दी, ताकि वे उत्साहित हो मन लगा कर
काम करें। पर धीरे-धीरे उस एजेंसी की नाकामयाबी की असलियत सामने आने लगी। उस कंपनी
की एक-एक ईंट क़र्ज़ में डूबी हुई थी जिसे सोना के मालिक ने सौदे के वक़्त छिपाया था।
उसके सी.ए. राजेश ने तब भी उसे काम की सलाह दी कि सोना के मालिक के ख़िलाफ़ कोर्ट में केस करे और फिलहाल सोना कंपनी से पल्ला झाड़ ले। जितना नुकसान हुआ है, वह राशि कोर्ट
के माध्यम से आज नहीं तो कल, देर-सवेर उसे मिल ही जायेगी। पर विनाशकाले विपरीत
बुद्धि, दीपक पर पता नहीं क्या नशा चढ़ा
था कि वह ख़ुद कुछ गुंडे लेकर सोना ट्रेवलिंग एजेंसी के पुराने मालिक छाबड़ा के यहाँ
लड़ने पहुंच गया। उसे लगा छाबड़ा डर जायेगा और वह कोर्ट-कचहरी के चक्करों से बच
जायेगा और व्यापार जगत में उसकी थोड़ी धाक भी जम जायेगी। इस बहाने एक सन्देश भी
सबमें जायेगा कि वह क्या चीज़ है। पर यहाँ खेल उल्टा पड़ गया छाबड़ा इन खेलों का
खिलाड़ी निकला। उसने कुछ ऐसा हंगामा किया कि जोश-जोश में वहाँ गोली चल गयी, जो छाबड़ा
के नौकर को लग गयी और वह बेचारा अल्लाह-मियाँ को प्यारा हो गया। बस यहीं से दीपक
के बुरे दिन शुरू हो गये। अब मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की एवज़ में दीपक को छाबड़ा, पुलिस, वकील, कोर्ट-कचहरी
को खर्चा-पानी देना पड़ रहा था। साथ ही साथ, अब्दुल जो गोली चलने से मरा था, उसके आठ सदस्यीय परिवार की ज़िम्मेवारी भी उस पर आ पड़ी। वह पैसे वाला था पर कोई ऐसा
बिज़नेस टाइकून भी नहीं था। जो यह सब झेल जाता। दो महीने से ज़्यादा यह खेल नहीं चल
पाया। पहले उसके हाथ से सोना गयी फिर ख़ुद की कंपनी परी ट्रेवल्स, जो उसने अपनी
इकलौती प्यारी बिटिया के नाम से बनायी थी। परी के जन्म के साथ ही यह कंपनी शुरू
हुई थी और उसके सातवें जन्मदिन के दिन, वह बिक भी गयी।
यहाँ तक भी
मसला रुक जाता तो शायद दीपक फिर मेहनत करके अपने पैरों पर खड़ा हो जाता। पर ख़र्चे
और आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट की एवज़ में उसे बड़ी रक़म की ज़रूरत थी। जो उसने ओपन
मार्किट से ब्याज पर उठा ली। जिसे वापस चुकाने का कोई इंतज़ाम नहीं था। अब वह चहुँ
ओर से गर्त में जाने लगा। हर फ़ोन धमकी भरा और वसूली के लिये होता था। परिवार में
ख़ुशी काफूर हो गयी और डर व्याप्त हो गया। रेणु तक को धमकी भरे भद्दे फ़ोन आने लगे और परी के
अपहरण की धमकियाँ मिलने लगी। परी का स्कूल छुड़वा दिया गया और वह घर में बिना किसी
अपराध के क़ैद हो गयी। रेणु का सुख-चैन छिन गया। उसका एक-एक ज़ेवर बिक गया। घर-रसोई
ख़ाली हो गये, किसी तरह मुस्कान उसने अपने चेहरे पर बनाये रखी थी। धीरे-धीरे उसकी
जगह मायूसी ने ले ली। दीपक ने भी मदद के लिये सब जगह हाथ-पैर मारे, पर वापसी की
गुंजाइश न देखकर किसी ने मदद नहीं दी। यार-दोस्त, रिश्तेदार
पहले ही अपने सामर्थ्य की हदों को पार कर मदद कर ही रहे थे, पर अब उनकी भी हिम्मत
टूटने लगी थी और दीपक को भी उनके आगे हाथ फैलाने में शर्म आने लगी
थी। एक वक़्त पर दो-दो बड़ी कंपनियों का मालिक, आज ख़ुद एक के बाद एक ट्रेवलिंग एजेंसी
में नौकरी के लिए मारा-मारा फिर रहा था। ज़िन्दगी में बड़े ओहदे के साथ समस्या भी
यही है, कि छोटा ओहदा और छोटा काम रास भी नहीं आते। पहले-पहल तो कोई दीपक को काम पर
रखने में तैयार नहीं हुआ, एक-आध हुए भी तो वे वह लोग थे, जिन्होंने दीपक के हाथों
व्यापार में घाटा उठाया था। सो वे बस उसे ज़लील करना चाहते थे। यह बात दीपक को समझ
आ गयी। बड़ी मुश्किल से एक नयी-नयी खुली ट्रेवलिंग एजेंसी ने उसे मैनेजर का काम
दिया। वहाँ दीपक को कोई नहीं जानता था। सो उसने भी राहत की सांस ली और नौकरी पर
जाना शुरू किया।
इन सब हालातों ने दीपक को तोड़कर रख दिया। वह पहले निराशा में डूबा फिर अवसाद
में, बस यही गनीमत थी कि उसे नशे की बुरी आदत नहीं लगी। शायद उसे यह हर पल अहसास
रहता था, कि वह एक ख़ूबसूरत परी का बाप है। उसका अवसाद, धीरे-धीरे रेणु को भी अपनी
चपेट में लेने लगा। उधार जिस रफ़्तार से चुक रहा था, उस हिसाब से उनके आने वाले बीस
साल कर्जदारों के लिए गिरवी हो चुके थे। घर आने वाला एक-एक रुपया, पहले से गिना हुआ
था। सिवाय बेहद ज़रूरी आवयशकताओं के कोई फरमाईश नहीं पूरी हो रही थी। बेचारी परी एक
अदद नये फ़्रॉक, आइसक्रीम, गुड़िया और
अच्छे खाने तक को तरस गयी थी। रेणु का शरीर भी ढल गया था, मनःस्थिति ठीक नहीं होने
से उसे भी असमय बीमारीयों ने आ घेरा। वह सारा-सारा दिन बिस्तर पकड़े रहती और अब घर
के काम भी बमुश्किल ही निपटा पाती। इन सब दुरूह हालातों में एक दुष्विचार दीपक
के मन में पलने लगा। आजकल उसकी निगाहें अखबार में उन ख़बरों में अटक जाती-जिसमें
कोई असफ़ल और क़र्ज़ में दबे व्यक्ति ने अपने परिवार समेत आत्महत्या को अंजाम
दे दिया हो। एक बारगी को वह ऐसी खबरें पढ़ तो लेता पर उसे मन ही मन-अपने ऊपर बीतती
सोचता तो उसका गला सूख जाता, शरीर पसीने में नहा जाता। रह-रह
कर उसे अपने हाथ परी के गले की तरफ़ बढ़ते दीखते। वह कभी-कभी सुबकने लग जाता, पर ऑफिस
में होने की वजह से जल्द ही अपने को क़ाबू में कर लेता।
एक दिन यूँ ही रेणु के मुँह से उसके सामने निकल गया "ऐसी ज़िन्दगी से तो
मौत अच्छी है" कहने के बाद रेणु को अहसास हुआ कि उसने यह क्या कह दिया। उसकी
नज़रें दीपक से मिली तो उसे उन आँखों में यह भाव पहले से बैठा मिला। दोनों ने आँखों
ही आँखों में एक दूसरे को तस्सली दी और कोई गुप्त समझौता उनमें हो गया। जो दिमाग़
की ऊपरी परत से उतर कर दिल की गहराईयों तक नहीं उतरा। वरना आदमी का दिल ग़लत काम और
फैंसला नहीं लेने देता, चाहे कोई भी परिस्थिति हो। एक दिन रात के खाने के बाद
दीपक और रेणु बहुत दिनों बाद साथ बैठे परी सो चुकी थी। दीपक उसका मुँह ही देख रहा
था। मात्र दस महीने में वह राजकुमारी से किसी मांगने वाले की बेटी लगने लग गयी थी।
उसका कलेजा मुँह को आ गया। उससे और नहीं देखा गया और मुँह फेर लिया। रेणु ने उसके
कंधे पर हाथ रखा और अपना सिर वहाँ टिका दिया।
"तुम जो तय करोगे हम वही करेंगे" एक तरह से रेणु ने अपनी और परी की सहमति दीपक को दे दी। बदले में दीपक कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया पर उसने महसूस किया
कि उसके पैरों तले ज़मीं तो कब की ख़िसक चुकी है, उसका शरीर आज नहीं तो कल-बस कुछ ही
दिनों का मेहमान है। उसे ख़राब लगने की बजाय हल्का महसूस हुआ और एक
शांत लहर सी उठी, जो उसके सीने के बीचो-बीच जाकर थम गयी।
उस रात के बाद से दीपक का ज़्यादातर वक़्त-आत्महत्या के तरीकों को पढ़ने पर ही बीतता
था। पहले उसने और रेणु ने यह विचार किया कि वह और रेणु ही आत्महत्या करेंगे और परी
को रेणु अपने भाई के यहाँ भेज देगी। पर बहुत सोचने पर भी दोनों को कोई भी उपयुक्त
विकल्प नहीं लगा। जहाँ उनके इस दुनिया से जाने के बाद परी अच्छे से रह पाये। सभी
में कोई न कोई नुख़्स नज़र आया। मजबूरन परी को भी इस स्कीम में रखना पड़ रहा था। इन
दिनों परी की नींद भी उचाट हो गयी थी। रेणु घंटो तक उसे सुलाती रहती पर उसकी आँखों
से नींद ग़ायब ही रहती। उसकी आँखें रात के अंधेरों में कुछ खोजती रहती थी। रेणु का
ऐसा सोचना था कि शायद परी को भी अंदेशा हो गया है। रेणु ने अपनी चिंता दीपक को बताई।
यह सुन दीपक को लगा कि एक आख़िरी पिकनिक तो पूरे परिवार संग बनती है, और तीनों संडे को
घूमने निकल पड़े। वापसी में ज़हर की बोतल घर पर सबका इंतज़ार कर रही थी । जेब में
पैसे तो थे नहीं, जो कहीं महंगी जगह जाते, सो ले देकर चिड़ियाघर ही एक सस्ता सुलभ
स्थान था। परी और रेणु आज बेहद ख़ुश थे। उन्हें खुश देखकर दीपक की आँखें नम थी।
टिकट लेकर तीनों अंदर घंटों घूमते रहे। कोई जानवर ऐसा नहीं था-जिसका जंगला छोड़ा हो
परी ने आख़िर में वे सब तालाब किनारे सुस्ताने लगे। तालाब, ज़ू में
नया-नया ही बना था। रेणु पेड़ की टेक लगा कर बैठ गयी। दीपक उसकी गोद में सिर रखकर
लेट गया। महीनों के थके, शरीर और दिमाग़-अपनी सुध-बुध मिनटों में खो बैठे और दोनो सो
गये, परी पहले तो उनके पास ही खेल
रही थी पर कुछ देर बाद वह तालाब के पास फिर और कुछ देर में उसकी मुंडेर पर और थोड़ी
देर बाद, वह उसमें अपने पाँव डाले बैठी थी। दुर्भाग्यवश, उसकी सैंडल पाँव से निकल
कर पानी में गिर गयी। जिसे निकालने का वह स्वयं ही यत्न करने लगी।
'छपाक' की आवाज़ से रेणु की नींद खुली, परी को आस-पास न देखकर-उसके होश उड़ गये। उसे ध्यान आया उसने पानी की आवाज़ सुनी थी। वह दीपक को झकझोर कर तालाब की ओर भागी। तालाब की मुंडेर पर पहुंच कर उसके तो होश
फाख्ता हो गये, जब उसने पानी की सतह पर परी का फ्रॉक तैरता देखा। उसने आव न देखा
ताव और तैरना न आने के बावजूद पानी में छलांग लगा दी और कुछ ही सेकण्ड्स में वह भी
गोते लगाने लगी और मदद को चिल्लाने लगी। अब तक दीपक, रेणु-रेणु
चिल्लाता हुआ तालाब किनारे आ चुका था। बिना एक पल गवाये उसने भी तालाब में छलांग
लगा दी। तब-तक तालाब किनारे भीड़ भी जमा हो चुकी थी। किसी केयरटेकर ने एक ट्यूब
पानी में फ़ेंक दी। दीपक, रेणु तक तैर कर पंहुचा तो रेणु
चिल्लाई "परी....परी को बचाओ दीपक! पहले परी को
बचाओ, वो गहरे पानी में है" दीपक ने ट्यूब रेणु को पकड़ाई और तले में गोता लगा दिया। पहली बार में परी हाथ नहीं आयी। सांस भर कर, वह फिर अंदर को गया, इस बार उसका पैर किसी से टकराया, वह परी का हाथ था। उसने तुरंत
उसे पकड़ कर ऊपर को खींचा। जलीय बेल ने परी को जकड़ा हुआ था पर काफ़ी मशक़्क़त के बाद, वह उसे सतह पर लाने में सफल हो ही गया। काफ़ी पानी परी के पेट में जा चुका था। रेणु
ने उसका पेट दबाया। भीड़ में एक डॉक्टर भी थी, उसने सीपीआर देकर परी की सांसें लौटाने की
कोशिश की, पर परी प्रतिक्रिया नहीं दे रही थी। दीपक और रेणु एक दूसरे को थामे
घुटनों के बल बैठ गये। पुलिस के जवान आते दिखे और भीड़ छटने लगी। रेणु ने एक आख़िरी
कोशिश करने की गुज़ारिश डॉक्टर से की, और खुद भी परी के तलवे मसलने लगी। इस बार क़िस्मत ने
साथ दिया, मुँह से बहुत सारे पानी को निकालती हुई परी ने खाँसते हुए आँखें खोली। सबसे पहले उसके मुँह से पापा-पापा की पुकार निकली। सबने रब का शुक्राना अदा किया। पुलिस, रेणु और दीपक को लताड़ दे कर चली गयी, कि कैसे लापरवाह माँ-बाप हो-जो अपनी ही बच्ची
का ध्यान नहीं रख सकते। डॉक्टर को बहुत सारा शुक्रिया देकर रेणु ने विदा किया।
दीपक तो जैसे काठ का पुतला बन चुका था।
रेणु ने दीपक के कंधे पर हाथ रखा तो वह फूट-फूट कर रोने लगा और ख़ुद को थप्पड़
मारने लगा। जब रेणु ने उसे रोकने की कोशिश की तो वह बोला "रेणु! मैं शैतान बन
गया था, अरे मरना तो मुझे चाहिए। मैंने
काम ही ऐसा किया है। तुम दोनों की ज़िन्दगी नरक बना कर रख दी। अरे! जिस फूल सी बच्ची को
मैं मारने चला था, उसने तो आज बेहोशी से आँखें खोलने के बाद भी सबसे पहले 'पापा-पापा' कहकर पुकारा, और तुम रेणु तुम मेरा हर हाल में साथ देती ही चली गयी। यहाँ तक की मरने तक में
साथी बनने चली थी। अरे पगली! इतना प्यार मत कर मुझसे। बस बहुत हुआ। आज मेरी
आँखें खुल गयी है, परिवार साथ है तो ज़िन्दगी जैसी भी हो चल जाती है। दुःख-सुख, जो
भी आएगा, हम साथ मिलकर लड़ेंगे। मैं फिर से कोशिश करूँगा, और जैसे भी हो ख़ुद को फिर
से साबित करूँगा, और कल से परी स्कूल जाएगी। जायेगी न परी?" और परी ने
पापा के गीले गालों पर पप्पी कर दी। चिड़ियाघर से लौटते हुए तीनों को लग रहा था, कि एक बेहतर ज़िन्दगी की ओर उनकी वापसी हो रही है।
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