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कोमल





"तुम जैसे कंजर यार मिल जाये तो दुश्मनों की क्या ज़रूरत है। पता है अभी तक मेरे रौंगटे खड़े हैं। आगे से पार्टीज़ में कोई भूतिया कहानी नहीं सुनायेगा, कहे देती हूँ।" कोमल ने अपने दोस्तों पर तड़ी झाड़ते हुए ग़ुस्सा किया।

"हाँ-हाँ भई नहीं सुनायेंगे अब तुम्हें भी नाराज़ कर दिया तो फिर इस जगह से भी महरूम हो जायेंगे। एक पूरे शहर में तू ही तो है जो फ्लैट में अकेली रहती है।" निष्ठा आँख नचाते हुए बोली।

"पर यार कुछ भी कहो, वो जो आख़िरी वाक्या मनु ने सुनाया न, बाय गॉड बड़ा डरावना था। ज़रा सोचो एक अकेली बिल्डिंग शहर से कटकर जंगल के पास और उसके अंदर पाँचवे माले के 13 नंबर अपार्टमेंट में भटकती, वो टेड़े सर की भूतनी। बाप रे! मुझे तो आज रात नींद नहीं आने वाली। निष्ठा आज तू मेरे यहाँ चल के सो।" अपराजिता ने निष्ठा से तकाज़ा किया।

"अरे यार! घर नहीं चलना क्या? इतना टाइम हो गया। लो फ़ोन भी आ गया मम्मी का। हाँ, हेलो! जी मम्मी, कोमल के यहाँ से बस निकल ही रहे थे। मैं हूँ, निष्ठा है, अपराजिता और मनु हैं। हाँ! पंद्रह मिनट में पहुँच जाऊँगी। जूही बोली।

"यार तुम लोग अभी और नहीं रुक सकते क्या।" कोमल ने थोड़ा चिरोरी करते हुए पूछा।

"क्यों डर लग रहा है?"

"हैं, हाँ।"

"चल डरपोक, रोज़ तो यही रहती है। पूरे फ्लोर की अकेली मालकिन बनकर। तुझे कोई डरायेगा न तो वो तू ही होगी। चलो यार निकले अब लेट हो रहे हैं।" मनु के कहने पर सब सहेलियां तेज़ी से नीचे उतर कर अपनी-अपनी स्कूटी और एक्टिवा पर चलती बनी बस पीछे रह गयी कोमल सबको बालकनी से हाथ हिलाती हुई।

अचानक उसने गौर किया कि उसके फ़्लैट का नंबर भी 13 ही है और इत्तेफ़ाक से वो पाँचवे माले पर ही रहती है और इस बिल्डिंग को कतई शहर के अंदर तो नहीं कह सकते। इस अहसास से कोमल बौखला सी गयी। उसने हड़बड़ाहट में अपना मोबाइल किसी को फ़ोन करने के लिए निकाला। उसमें एक SMS पहले से आया हुआ था।

"तुमने मुझे याद किया और मैं आ गयी तुम्हारी तन्हाई बांटने।" SMS किसने भेजा है ये कोमल को ठीक से नहीं दिख रहा था उसने अपनी गर्दन थोड़ी टेड़ी करके नाम पढ़ने की कोशिश की। उस मैसेज के अंत में कोमल ही लिखा था। एक हल्की 'कटाक' की आवाज़ आयी और फिर वो गर्दन कभी ठीक नहीं हुई।


लेखक: 
लोकेश गुलयानी 
भोपाल 
98280 66335 


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होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं बना रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत अच्छा होने नहीं देती   

आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

अब तलक वो - ग़ज़ल

अब तलक वो हमें याद करते हैं, थोड़ा-थोड़ा बर्बाद करते हैं।। काफ़िला तो गुज़र गया यारों, मुसाफ़िरों को याद करते हैं।। मंज़रे सहरा तब उभर आया, जब वो बारिश की बात करते हैं।। इंसा-इंसा को भी क्या देगा, क्यों हम उनसे फ़रियाद करते हैं।।  ज़िल्लतें जिनकी ख़ातिर पी हमने, वही हमसे किनारा करते हैं।। थका-हारा दिल आख़िर टूट गया, क्यों अब उससे कोई आस रखते हैं।।