वह नगीनों की घिसाई का काम करता था। उसकी पारखी आँखें कम रोशनी में भी खोट पहचान लेती थी और उसी परख की बदौलत घर का चूल्हा रंग बदलता था। चुनिंदा रंग देखे थे उन आँखों ने पर नीलम का मोरिया रंग उसे बहुत भाता था। जिस दिन मालिक उसे नीलम पकड़ा देता, मानो उसे खुद की सुध-बुध न रहती। उसकी हालत दारु के ठेके के बाहर बैठे दारुड़ियों सी हो जाती। वह उसे उठा-उठा के देखता, अपनी आँखों के सामंने नचाता, उसे काटते हुए उसका कलेजा रह-रह कर मुँह को आता। बालों में सफेदी आयी और आँखों में धुंधलापन। अब सिवाय डबडबायें रंगों के और कुछ न दिखता। बैठक अब किसी सेठ की गद्दी पर न होकर घर के बाहर के नीम के नीचे पड़ी खाट पर होती। गली के बच्चे खेल-खेल में उसे कंचे और पत्थर थमा देते और उसके कानों में कटिंग मशीन की गरारियों का शोर गूँज उठता और हाथ ख़ुद ब ख़ुद पत्थर को आँखों के सामने हिलाने-ढुलाने लगते। पत्थरों का क्या है...किसी भी रंग के सही।
अब तलक वो हमें याद करते हैं, थोड़ा-थोड़ा बर्बाद करते हैं।। काफ़िला तो गुज़र गया यारों, मुसाफ़िरों को याद करते हैं।। मंज़रे सहरा तब उभर आया, जब वो बारिश की बात करते हैं।। इंसा-इंसा को भी क्या देगा, क्यों हम उनसे फ़रियाद करते हैं।। ज़िल्लतें जिनकी ख़ातिर पी हमने, वही हमसे किनारा करते हैं।। थका-हारा दिल आख़िर टूट गया, क्यों अब उससे कोई आस रखते हैं।।