Skip to main content

आसान है लिखना

कुछ लोग लिखने को एक आसान काम समझते हैं। है आसान..... मानता हूँ मैं ! मुश्किल नहीं है। आसान तब है जब आपने किसी टूटते हुए तारे को देख लिया। आसान तब है जब आपने कोई तूफ़ान को गुज़रते देख लिया। आसान तब भी हो जाता है जब आप सड़क पर बिखरी भूख़ और गऱीबी देख लेते हैं। तब भी आसान है जब बच्चे अपने बूढ़े माँ-बाप को दर-दर की ठोकरे खाने को सड़क पर छोड़ देते हैं। आसान हो सकता है एक शहीद की जलती चिता देख लिख देना। आसान है किसी गुलबदन का आँचल शब्दों में नाप देना। माँ, प्रकृति, जीवन सबके बारे में आप लिख सकते हैं आसानी से। शायद आप तब भी आसानी से लिख सकते हैं जब पानी में घूमती मछली आपके पैरों में गुदगुदी करती हैं। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको कोई छोड़ जाता है। आप तब भी लिख सकते हैं जब आपको रोना आता है। 


पर ये मुश्किल कब है? ये मुश्किल तब है जब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है। जब आपको अपनी गुफ़ा में अंदर घुसना पड़ता है वो भेड़िया ढूंढना पड़ता है जो आपको ढूढ़ रहा है। तब ये बहुत मुश्किल हो जाता है। एक वक़्त के बाद वो रोशनी दिखनी बंद हो जाती है, जिसके सहारे आप चल रहे थे। अब आप कहाँ जाएंगे? आप फँस गए हैं। सही में आप फंस गए हैं। आप उसके आगे गुज़र नहीं सकते। आप चाहते हैं, वो रोशनी आपको फिर दिखे, मगर आपको कुछ नहीं दिख रहा। भेड़िया भी दिख जाता तो शायद आप बच जाते। मगर वो आपको गुफ़ा में घुसा के कहीं गुम हो गया है, अब आप क्या करेंगे? आह ! मेरी जान क्या करोगे? फंस गए हो आप। और ऐसे फंसते हैं राइटर। 





Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

हुआ सो हुआ

अंधेरा होना था, हुआ सो हुआ  सपना सलोना था, हुआ सो हुआ  आइना न तोड़िये, चेहरे को देखकर  दिल को रोना था, हुआ सो हुआ  कौन पूछेगा हाल, अब तेरे बाद  तुझको ही खोना था, हुआ सो हुआ  मरासिम न रहे, तो न सही  सलाम होना था, हुआ सो हुआ 

होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत हमें अच्छा होने नहीं देती