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सोच (an abstract)





वो, जो झूठ की धुंध के आर पार है. . .  वो, जो दिमाग के कोलाहल की आखिरी सीमा से भी परे है !


वहां, जहां शाम और रात के बीच एक नयी सुबह होती है, जहाँ एक लम्हा मरता है और दूजा जन्म लेता है !!


उन परिंदो की उड़ानों और पंखो के बीच हवा का क़त्ल होते मैंने देखा है !


एक नंगा साधु जो सच को पारिभाषित करता है, एक सांप का बाम्बी से निकलना और चील के हवा में गोता लगाने की ललक !!


दूर से आती रोशनी और दूर जाती दिखती है, ये जो ब्रह्माण्ड का विस्तार है, मेरा भी यही आधार है !


पानी है जो ज़मीन और आकाश के बीच का भेद है, मेरे चेतन और अवचेतन मन में शून्य हो जाने का संकेत है!


जो अलौकिक प्रकाश तुमसे फूट रहा है, उसे क्या कहु, तुम में रक्त नहीं तुम सिर्फ 'सोच' हो मेरे कपाल की !!





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आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

हुआ सो हुआ

अंधेरा होना था, हुआ सो हुआ  सपना सलोना था, हुआ सो हुआ  आइना न तोड़िये, चेहरे को देखकर  दिल को रोना था, हुआ सो हुआ  कौन पूछेगा हाल, अब तेरे बाद  तुझको ही खोना था, हुआ सो हुआ  मरासिम न रहे, तो न सही  सलाम होना था, हुआ सो हुआ 

होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत हमें अच्छा होने नहीं देती