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सरकता सिसकता दर्द और मैँ ये दूर खड़ा




सरकता सिसकता दर्द और मैँ ये दूर खड़ा, ओंधे पड़ें घड़े सा मजबूर बड़ा
चींटियाँ सी रेंगती हैं नस-नस में, खून का हर कतरा  पानी को तरस पड़ा..!


गर्म हवाएँ भेद  जाती है जिस्म के कबाड़ को, टटोलने से मिलता है वजूद मेरा
आसमां तक नज़र जाकर लौट आती है, के उपर से नीचे तक  सन्नाटा है  पसरा पङा ..!


जल रहा है हलक मेरा धूप पी-पी के,  दिमाग से कुछ सूझते न बन पड़ रहा
क्या सही है क्या ग़लत ये अभी फ़िज़ूल है, ज़िंदा जीव को रखने का बखेड़ा  खड़ा.. !


सीख के तो सब ख़ाना आते है यहाँ,  भूख़  खुद  सिखाती है सबक बहुत बड़ा
हालत हो गयी है ऐसी कि जो दिख जाये काट दू, पर शमशान भी सुनसान मरा..!


मंडराते है गिद्ध मेरी जीतीं हुई  लाश पे, की आज नहि तो कल का उन्हे आसरा बड़ा 
कैसा हठ है मेरा खुद से ज़ीने का, के मरना चाहेँ है दर्द, पर मैं ज़िद्द पे अडा.. !



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आगे

बढ़ गया हूँ आगे, फिर पीछे कौन खड़ा है।  अड़ गया है साया, इसका क़द मुझसे बड़ा है।। इंसान हो, तो इंसान की तरह पेश आओ।  ये क्या कि अब वो गया, अब ये गया है।। सूरज डूबता है फिर उगने को, पता है ना।  लगता है बस आज (आज ) ही ये भूल गया है।। आज़ाद हो तो साँस लेकर दिखाओ।  क्या मतलब कि सीने पर बोझ पड़ गया है ।। तुम किसको पूछने आये बतलाओ।  वो जिसको ज़माना कब का भूल गया है।।

हुआ सो हुआ

अंधेरा होना था, हुआ सो हुआ  सपना सलोना था, हुआ सो हुआ  आइना न तोड़िये, चेहरे को देखकर  दिल को रोना था, हुआ सो हुआ  कौन पूछेगा हाल, अब तेरे बाद  तुझको ही खोना था, हुआ सो हुआ  मरासिम न रहे, तो न सही  सलाम होना था, हुआ सो हुआ 

होने नहीं देती

इक तड़प है जो सोने नहीं देती  ये दुनियाँ बेरहम रोने नहीं देती मैं चलता चला गली दर गली  मंज़िल है कि खोने नहीं देती  बहुत बार लगा कि कह दें सब  ग़ैरत है के मुँह खोलने नहीं देती  हम भी कभी हसीं थे  हसीं रहूं ये उम्र होने नहीं देती  भरा पेट नफ़रत ही बोता है  भूख़ प्रेम कम होने नहीं देती  नासूर बन गए अब ज़ख्म  फ़ितरत हमें अच्छा होने नहीं देती