मैं इंतज़ार में था एक सुन्दर सुबह के जब लगभग सब कुछ सुन्दर ही दिखाई दे। ऐसी सुबह कई बार आती-आती रह गई। फिर धीरे-धीरे मैंने उसकी चाहना ही छोड़ दी। मैं डूब गया कुहरे से सनी सुबहों में, धूसर दिनों में और रातों की कालिख़ में। मुझे मिलते रहे मेरे जैसे लुटे-पिटे लोग, 'जो सुन्दर सुबह हो सकती है इस सम्भावना से आज़ाद हो चुके थे।' हम साथ बैठ कर बात करते, साथ काम करते, साथ खाते-पीते पर उस सुन्दर सुबह का ज़िक्र करने से बचते। असल में हम सुंदरता से घबराने वाले लोग थे। हम वो लोग थे कि जब जीवन में प्रेम ख़ुद चल कर आता है तो भी हम संशय करते कि 'ऐसा हमारे साथ कैसे?' प्रेम की सुंदरता से वंचित लोग भय में जीते हैं और अंततः प्रेम के प्रति हिंसक हो जाते हैं। ऐसा मुझे सड़क पर दुत्कारे कुत्तों को देखकर ख़्याल आया। लगातार वंचित रहने और दुतकारे जाने पर उनकी तरफ़ जब कोई हाथ बढ़ाता है तो उनका भयभीत होना और गुर्राना लगभग साथ ही होता है। मैं इस भय और गुर्राने की अवस्था को पार करके दूसरी तरफ़ आ चुका हूँ और उदासीन हो चुका हूँ, किसी भी संभावना के प्रति जो मुझे आश्वस्त करती है मेरे जीवन में प्रेम की उपस्थिति को ले...
Fitoor....jo kagaz pe utar aata hai...